संसद में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व 1952 के बाद आज सबसे कम है। कुल 543 सदस्यों वाली लोकसभा में मुस्लिम सांसदों की संख्या आज घटकर 19 रह गई है।


इस तरह 14 प्रतिशत मुस्लिम आबादी का प्रतिनिधित्व लोकसभा में महज 3 प्रतिशत से थोड़ा ज्यादा है।  

अगर हम संख्यानुपात में प्रतिनिधित्व की बात करें तो मुस्लिम आबादी को लोकसभा में 75 सीटें मिलनी चाहिए। सत्ता में हिस्सेदारी की बात तो छोड़िये, भारतीय राजनीति में कट्टरपंथी ताक़तें इस क़दर मज़बूत हो गयी हैं कि वह आज मुसलमानों से “मुक्त” राजनीति की बात कहने में नहीं हिचकतीं हैं।  

मुसलमानों के गिरते हुए प्रतिनिधित्व को ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम’ की खामियों के तौर पर भी देखा जा रहा है। 


देश में प्रचलित चुनाव की इस पद्धति के अनुसार विजेता उम्मीदवार को ‘मेजोरिटी वोट’ हासिल करने की जरूरत नहीं होती है,जिसने भी अन्य उम्मीदवारों से एक भी ज्यादा वोट हासिल कर लिया, वह विजयी घोषित कर दिया जाता है।  

इन प्रश्नों को बाबा साहब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर भी अपनी पूरी जिंदगी उठाते रहे।  अल्पसंख्यक समुदाय के अधिकार को दबाने या निगल जाने को वह लोकतंत्र के सिद्धांतों के प्रतिकूल मानते थे। 


उनका कहना था कि जब तक वंचित समाज के लोग संसद और अन्य संस्थाओं में नहीं पहुंच जाते, तब तक शासक वर्ग के लोग उनके हित को दबाते रहेंगे।  

लोकसभा में इतने कम मुसलमान सांसद क्यों हैं?

अफ़सोस की बात है कि अंबेडकर के इन विचारों को आज भुला दिया गया है और राजनीतिक दल मुसलमानों की हिस्सेदारी के प्रश्न को बड़ी बेईमानी से नजरअंदाज कर रहे हैं।


इस मामले में कांग्रेस का रिकॉर्ड भी बहुत अच्छा नहीं है और  उसके अच्छे दिनों में भी लोकसभा में मुसलमानों की हिस्सेदारी सात फीसदी के आसपास रही।  

 क्या यह रुझान भारतीय संविधान के मूल्यों के प्रतिकूल नहीं हैं?

दरअसल इन प्रश्नों का सम्बन्ध सिर्फ मुसलमानों से ही नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र से है।  इन प्रश्नों का सम्बन्ध संविधान के स्तम्भ सामाजिक न्याय, सेकुलरिज्म, अल्पसंख्यक अधिकार से भी है। मुल्क की विविधता और सांप्रदायिक सद्भाव के ताने-बाने भी इन प्रश्नों से जुड़े हुए हैं और दूसरे शब्दों में, यह पूरा मामला न्याय से जुड़ा हुआ है।  

इन्हीं कमियों को ध्यान में रखकर ‘प्रोपोशनल रिप्रजेंटेशन’ की मांग हो रही है। इसका मतलब यह है कि वोट शेयर के मुताबिक पार्टियों को सीटें दे दी जाएं। 


कुछ ने तो एससी और एसटी की तरह मुसलमानों के लिए सीटें आरक्षित किये जाने की वकालत की है। 


इसके अलावा, बड़ी मुस्लिम आबादी वाली सीट को एससी के लिए आरक्षित करने का भी विरोध किया जा रहा है क्योंकि ऐसी सीटों पर मुसलमान चुनाव लड़ ही नहीं सकते।